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संगीत का निर्माण कैसे होता है

 

सर्व प्रथम किसी वस्तु पर आघात देने से कंपन  उत्पन्न होता है 

 

ध्वनि 

 

उत्पन्न हुए कंपन से ध्वनि निर्माण होता है । ध्वनि संगीत का आधारभूत तत्व होता है ।

 

नाद 

 

संगीत मैं ध्वनि को ही नाद कहा जाता है । नाद शब्द की सामान्यतः ‘नद‘ धातु से व्युत्पति मानी जाती है, जिसका अर्थ होता है अव्यक्त ध्वनि। इस अव्यक्त ध्वनि के ही व्यक्त रूप है - वर्ण, पद, वाक्य तथा स्वर इत्यादि

नदोपासनाया देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।

भावन्तुपसिता नूनं यासमादेते तदात्मकोंः ॥

 

नकारं प्रांणमामानं दकारमनलं बिंदु:। 

जात: प्राणअग्नि संयोगातेनम नदोभिधीयते ।। 

 

अर्थात नाद शब्दों में ‘नकार’ प्राणवायु और ‘दकार’ अग्नि का द्योतक है अतः प्राण  और अग्नि के  संयोग  से निर्मित  होने के कारण इसकी नाद संज्ञा सार्थक  होती है।

For English

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नाद के मुख्यतः २ प्रकार है 

 

१) आहत नाद 

-ध्वनि, शब्द व आवज़ मात्रा ही आहत नाद है । आहत नाद किसी वस्तु पर आघात,मर्दन अथवा दो भौतिक वस्तुओं के टकराव से उत्पन्न होता है। यह कानों से सुनाई देता है और यही संगीत का आधार है 

 

२) अनाहत नाद 

अनाहत माड़ बिना आघात के ही उत्पन्न होता है। इसे केवल योगिजन ही सुनते है, समजते है और इसके द्वारा मुक्ति पाते है । मन और बुद्धि की साम्यावस्था मैं ही यह सुना जाता है । उसी नाद मैं विमग्न होकर योगिजन ब्रह्मानंद का अनुभव करते है ।

 

श्रुति

  • श्रुति ध्वनि अथवा नाद कि सूक्ष्म इकाई है । ‘संगीतरत्नाकर’ के अनुसार “श्रवणच्छुतयो मता:” । अर्थात् सुनाई देने के कारण यह श्रुति कहलाती है। वह सूक्ष्म ध्वनि जो सुनी जा सके एवं संगीत में प्रयुक्त कि जा सके अथवा जिसके द्वारा हम स्वरों के अंतराल को स्थापित कर सके, उसको श्रुति कहते है ।

  • श्रुतियों की संख्या भरतमुनि आदि विद्वानों के अनुसार २२ है ।

  •  प्राचीन और मध्यकाल के सभी विद्वानों ने अपने स्वरों को उनकी अंतिम श्रुति पर स्थापित किया  है, जबकि आधुनिक काल के सभी विद्वानों ने अपने स्वरों को उनकी पहली श्रुति पर स्थापित किया  है । और यह 4 3 2 4 4 3 2 के अंतराल मैं है प्राचीन मध्य एवं आधुनिक काल के विद्वानों के अनुसार श्रुति स्वर स्थापना इस प्रकार हैं

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 स्वर

ध्वनि तत्व के संदर्भ में वेद, व्याकरण और विभिन्न दर्शनों में ‘स्वर’ पर मुख्यतः से तीन संदर्भों में विचार किया गया है-

  1. भाषा में - अ, इ, उ आदि वर्णों के रूप में,

  2. वैदिक साहित्य में - उदात्तादि के रूप में,

  3. साम गान मैं -  सप्तस्वरों के रूप मैं

 

रंजयति स्वतः स्वान्तम् श्रोत्रुणामिति ते स्वराः ।

षडजर्षभौ च गांधारत्था मध्यमपंचमौ ॥

धैवतश्त निषादोयमिति नामभिरीरिताः ।

 

अर्थात जो ध्वनिया अपने आप या स्वाभाविक ही सुनने वालों के चित को आकर्षित करती है वह स्वर कहलाती है| षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत, तथा निषाद यह सात स्वर है तथा उपरोक्त नाम से घोषित है

​​

कुलमिलकर  7 शुद्ध ,4 कोमल एवं 1 तीव्र स्वर है ,अर्थात 12 स्वर है जो क्रमश निम्नलिखित रूप में है 

 

             सा   रे    रे      ग   म  मे  प      ध   नि  नि

                   

थाट

 

​​​​स्वरों की जिस विशिष्ट रचना से राग रागिनियो की उत्पत्ति की जा सके उसे थाट या ठाट या ठाठ कहते हैं । इसी को दक्षिण भारत में 'मेल' कहा जाता है कुछ ग्रंंथमें इसके लिए 'संस्थान' शब्द का प्रयोग भी मिलता है

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1.बिलावल ठाट – प्रत्येक स्वर शुद्ध।

     सा रे ग म प ध नि

 

2.कल्याण ठाट – केवल म तीव्र और अन्य स्वर शुद्ध।

सा रे ग मे प ध नि 

 

3.खमाज ठाट – नि कोमल और अन्य स्वर शुद्ध।

सा रे ग म प ध नि 

 

4.काफ़ी ठाट – ग, नि कोमल और शेष स्वर शुद्ध।

सा रे म प ध नि

 

5.आसावरी ठाट – ग, ध, नि कोमल और शेष स्वर शुद्ध।

सा रे म प ध नि 

6.भैरव ठाट – रे, ध कोमल और शेष स्वर शुद्ध।

सा रे ग म प ध नि

 

7.मारवा ठाट – रे कोमल, मध्यम तीव्र तथा शेष स्वर शुद्ध।

               |

सा रे ग म प ध नि

 

8.पूर्वी ठाट – रे, ध कोमल, म तीव्र और शेष स्वर शुद्ध।

              |

सा रे ग म प  नि

 

9.तोड़ी ठाट – रे, ग, ध कोमल, म तीव्र और शेष स्वर शुद्ध।

              |

सा रे ग म प  नि

 

10.भैरवी ठाट – रे, ग, ध, नि कोमल और शेष स्वर शुद्ध।

सा रे ग म प ध नि

इसके आगे भी बहुत कुछ समझने, सीखने, और जानने की आवश्यकता है लेकिन वह गुरु के साथ ही सीखेंगे तो ज्यादा स्पष्ट होगा

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